बिहार चुनाव: पहले चरण में वोटिंग बढ़ने का रुझान, NDA को होगा नुकसान?

नीलकमल, पटना कोरोना महामारी के दौरान बिहार देश का पहला ऐसा राज्य है जहां बिहार विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। हालांकि बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर यह संशय की स्थिति थी कि कोरोना काल में मतदाता घर से निकलेंगे या नहीं। चुनाव आयोग के सामने वोटिंग परसेंटेज और मतदाताओं की सुरक्षा एक बड़ी चुनौती थी। लेकिन तीन चरण में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के वोटिंग के मतदाताओं का उत्साह यह बताता है कि बिहार राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश है। कोरोना काल में मतदान को लेकर बिहार की जनता का यह उत्साह वर्तमान सरकार पर भारी पड़ेगा या विपक्ष पर यह तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा। बिहार विधान सभा चुनाव में अब तक के वोटिंग प्रतिशत चुनाव लोकसभा का हो या फिर विधानसभा का, किसी भी चुनाव में कभी 100 प्रतिशत मतदान नही होता। मतदान के दौरान यह मान कर चला जाता है कि संबधित विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के 5 प्रतिशत लोग शहर या राज्य से बाहर होने की वजह से मतदान नही कर पाते, लिहाजा 95 मतदाता के आधार पर ही वोटिंग परसेंटेज माना जाता है। किसी भी चुनाव में 60 प्रतिशत से कम मतदान होने पर कम वोटिंग, 60 से 70 प्रतिशत तक मतदान अच्छी वोटिंग और 70 प्रतिशत से अधिक वोट डाले जाते है तो इसे भारी मतदान कहा जाता है। बिहार विधानसभा चुनाव में 1952 में 39.51 प्रतिशत, 1957 में 41.37, 1962 में 44.47, 1967 में 51.51, 1969 में 52.79, 1972 में 52.79, 1977 में 50.51, 1980 में 57.28, 1985 में 56.27, 1990 में 62.04, 1995 में 61.79, 2000 में 62.57, 2005 फरवरी में 46.50, 2005 अक्टूबर में 45.85, 2010 52.73 और 2015 के विधानसभा चुनाव में 56.91 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। क्या वोटिंग प्रतिशत का बढ़ना सरकार के खिलाफ मतदान होता है ? मतदान के दौरान यह मानकर चला जाता है कि वोटिंग के दौरान मतदाता अधिक संख्या में मताधिकार का प्रयोग करते है तो इसका मतलब होता है कि वो वहां बदलाव चाहते है। यानी अधिक मतदान होने पर यह मान लिया जाता है कि उस राज्य या देश में वर्तमान सरकार से जनता नाखुश है और वह वहां बदलाव चाहती है। इसे अगर दूसरी भाषा में समझा जाए तो सरकार के एंटी इनकंबेंसी फैक्टर की वजह से मतदान का प्रतिशत बढ़ता है। लेकिन हर बार एंटी इनकंबेंसी की वजह से ही मतदान का प्रतिशत बढ़े ऐसा भी नही है। कई बार विपक्ष के ज्यादा हमलावर होने के बाद किसी प्रदेश या देश में प्रो इनकंबेंसी फैक्टर भी काम करता है। 1990 से 2015 तक कैसा रहा था बिहार में मतदान का प्रतिशत बिहार विधानसभा चुनाव के अब तक के परिणाम को देखें तो 1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार की सत्ता पर काबिज हुए थे और 1990 में 62.4% का मतदान हुआ था। जो 1985 के विधानसभा चुनाव के चुनाव परिणाम से 8% अधिक था। इसके बाद 1995 में 61.79% और 2000 में 62.57% मतदान रिकॉर्ड किया गया था। बिहार में 2005 में लालू यादव का राजपाट चला गया था और 2005 के अक्टूबर में हुए चुनाव के दौरान महज 45. 85% ही मतदान हुआ था। इसके बाद बिहार में नीतीश कुमार सत्ता पर काबिज हुए थे। लेकिन 2010 में मतदाताओ ने बंपर वोटिंग की थी जिससे मतदान प्रतिशत बढ़कर 52.73% हो गया और 206 सीट के साथ नीतीश कुमार दोबारा बिहार के सत्ता पर काबिज हुए थे। यानी वोटिंग परसेंटेज बढ़ने से बिहार में एनडीए की सीट में भी भारी इजाफा हुआ था। लिहाजा वोटिंग प्रतिशत बढ़ने का मतलब सिर्फ सरकार के खिलाफ ही मतदाता का रूझान हो यह नही कहा जा सकता। बिहार में चुनाव को लेकर अति-उत्साहित मतदाता ही नही करते मताधिकार का प्रयोग कहा जाता है कि बिहार में राजनीति को लेकर मतदाताओं का जो अति-उत्साह दिखाई देता है वह ईवीएम तक नही पहुंच पाता, क्योंकि अति-उत्साही लोग वोट देने ही नहीं जाते। बिहार में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में हुए मतदान का औसत 51 फीसदी से थोड़ा ज्यादा रहा है, जिसका मतलब है कि लगभग आधे मतदाताओं ने अपने लोकतांत्रिक मताधिकार की ताकत का प्रयोग ही नहीं किया। बिहार के बारे में कहा जाता है कि यह राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश है और यहां की जनता राजनीति में काफी रुचि लेते हैं। अगर यह सच है तो फिर क्या वजह है कि बिहार में मतदान का प्रतिशत हमेशा खराब रहता है। सवाल यह भी उठता है कि यहां की जनता वोट देने क्यों नहीं निकलती। 1995 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के चुनाव सुधार के बाद बिहार में निचले पायदान पर माने जाने वाले मतदाताओं ने जमकर वोट किया था। इसके बाद ही 1995 के चुनाव में लालू प्रसाद यादव की सरकार बनी थी।


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